Wednesday, April 22, 2020

मेरा गाँव


एक बंद कमरे में, एक पंखे के नीचे लेटकर, बाहर सूरज कब निकला पता नहीं चलता।
कभी पेपरवाले की ,कभी सब्जीवाले की, आवाज से नींद खुलती है ,
तो गांव में चिड़ियों की चहक याद आती है।

 गरीबी में भी कभी सूखी रोटी नहीं खाई।
मां जबरदस्ती देसी घी लगा देती थी।
साठ रूपये लीटर वाले अमूल में ,
जब चीनी के बिना कोई स्वाद नहीं आता ,
तो गाय के ताजे दूध की महक याद आती है।

 मेरे बगीचे के आम का पेड़ , मेरे नाश्ते का इंतजाम करता ।
बगल में लहलहाती  नींम कहती बिना दातून नाश्ता नहीं ।
सुबह नौ बजे के बाद जब पानी नहीं मिलता,
 तो गांव के तालाब में सूरज की झलक याद आती है।

लड़ना झगड़ना लगा रहता, मगर हर कोई यह जानता था।
दुख किसी के अकेले नहीं होते।
हम भी तो सुतहरिन को जलेबी कहते गाली सुनते थे।
ओ मेरा गांव जिंदादिल था, बात करता था।
 इस शहर की मुर्दा दीवारें साहब अच्छी लगे पर अपनी नहीं लगती।

                                      - विजय प्रकाश

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